Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi का रहस्य – 1723 का दुर्लभ शिलालेख

भारत के अनगिनत गांवों और कस्बों में ऐसी अनगिनत कहानियां और पुरातन धरोहरें छुपी हुई हैं, जिनके बारे में आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। इन्हीं में से एक है मेवात की ऐतिहासिक पहचान, पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी (Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi), जो अपनी भव्यता, स्थापत्य कला और रहस्यमयी इतिहास के लिए जानी जाती है। यह बावड़ी केवल पानी का साधन भर नहीं थी, बल्कि समाज, संस्कृति और मेल-मिलाप का एक केंद्र भी रही है। इसकी सबसे खास बात है इसमें लगा 1723 का दुर्लभ शिलालेख, जो हमें करीब 300 साल पुरानी उस दास्तां से जोड़ता है, जिसे वक्त की धूल ने लगभग ढक दिया था।

पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी अपने समय की इंजीनियरिंग और कला का बेहतरीन उदाहरण है। 1723 का यह दुर्लभ शिलालेख उस दौर की सामाजिक व्यवस्था, धार्मिक भावनाओं और निर्माण शैली की झलक पेश करता है। आज भले ही समय और लापरवाही ने इसके पत्थरों को घिस दिया हो, लेकिन इसकी दीवारों में अब भी इतिहास की सरगोशियां सुनाई देती हैं। यह धरोहर हमें याद दिलाती है कि हमारे गांवों में कितनी ऐसी अनकही कहानियां और छुपी हुई विरासतें हैं, जिन्हें सहेजना आने वाली पीढ़ियों के लिए जरूरी है।

परिचय – पिंगावां और बावड़ी का संक्षिप्त बैकग्राउंड

Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi 
मेवात के ऐतिहासिक गाँव पिंगावां में स्थित पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी सदियों से लोगों के जीवन का अहम हिस्सा रही है। यहाँ के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी इसके बारे में किस्से सुनाते आए हैं — कोई कहता है कि इसे राजा नल ने बनवाया था, तो कोई मानता है कि पांडव यहाँ पानी पीने के लिए रुके थे। लेकिन इन कथाओं के पीछे का असली सच किसी को ठीक-ठीक मालूम नहीं था।

मैं, नासिर हुसैन — जिसे लोग सोशल मीडिया पर और अधिकतर जगह नासिर बुचिया के नाम से जानते हैं — इतिहास की पुरानी जगहों पर जाकर रिसर्च करता हूँ और उनके बारे में वीडियो व पोस्ट साझा करता हूँ। मुझे इस पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी के बारे में एक दोस्त ने बताया। उसने कहा, “तुमने तो मेवात के कई किलों और मकबरों की कहानियाँ लोगों तक पहुँचाई हैं, लेकिन कभी इस बावड़ी को नहीं देखा, जहाँ पांडव पानी पीने आए थे और राजा नल ने इसे बनवाया था।”

इतना सुनकर मैंने तय किया कि इस जगह को जरूर देखना चाहिए। जब मैं पहुँचा और इसकी बारीकी से जाँच की, तो मुझे दीवार में जड़ा 1723 का दुर्लभ शिलालेख मिला, जो गाँव में प्रचलित कहानियों से बिलकुल अलग सच बयान कर रहा था। इस 1723 के दुर्लभ शिलालेख ने न केवल पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी का असली इतिहास सामने रखा, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि लोककथाएँ हमेशा तथ्य पर आधारित नहीं होतीं।

पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी का स्थान

आज भी Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi गाँव के बिल्कुल केंद्र में गर्व से खड़ी है, जैसे सदियों से गाँव की पहचान की रखवाली कर रही हो। अगर आप पिंगावां में सिकरावा रोड पर मुख्य चौक से आगे बढ़ते हैं, तो लगभग डेढ़ सौ मीटर के बाद दाईं ओर आपको यह बावड़ी दिखाई देगी। इसके बिल्कुल पास एक पुराना कुआं भी मौजूद है, जो कभी इस बावड़ी का मुख्य जल-स्रोत हुआ करता था। उस समय यह कुआं और बावड़ी मिलकर पूरे गाँव की प्यास बुझाते थे और यात्रियों के लिए भी जीवनदायिनी साबित होते थे।

स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि इस जगह के आस-पास पहले खुले मैदान और पेड़ हुआ करते थे, जहाँ लोग गर्मियों में छांव लेने और पानी पीने आते थे। पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी केवल पानी का स्रोत नहीं थी, बल्कि यह मेल-मिलाप और सामाजिक कार्यक्रमों का भी केंद्र रही है। दीवारों में मौजूद 1723 का दुर्लभ शिलालेख आज भी इस स्थान के ऐतिहासिक महत्व की गवाही देता है और बताता है कि यह धरोहर केवल गाँव की नहीं, बल्कि पूरे मेवात की शान है।


शिलालेख की खोज और महत्व

silalekh


 
जब मैंने पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी (Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi) में रिसर्च शुरू की, तो मुझे इसके एक कोने में दीवार पर जड़ा हुआ पत्थर का टुकड़ा दिखाई दिया, जिस पर कुछ उकेरा गया था। पहली नज़र में यह किसी साधारण सजावटी पत्थर जैसा लगा, लेकिन ध्यान से देखने पर स्पष्ट हुआ कि यह एक बेहद पुराना शिलालेख है। इसकी लिखावट देवनागरी के उस प्राचीन स्वरूप में थी, जिसे आज के समय में शायद लाखों लोगों में से केवल कुछ ही पढ़ पाते हैं। इस प्रकार की लिपि को समझना आसान नहीं था, क्योंकि इसमें उस दौर के शब्द-प्रयोग, वर्तनी और संक्षिप्त रूप शामिल थे, जो अब चलन से बाहर हो चुके हैं।

इतिहास में मेरी गहरी रुचि और पहले से किए गए कार्य — जैसे मेवात का इतिहास, मेवात के टॉप 5 महल, और हिस्ट्री ऑफ मेवात — ने मुझे यह सिखाया था कि किसी भी धरोहर के पीछे छिपी कहानी तभी सामने आती है, जब उसके सबूतों को सही ढंग से पढ़ा और समझा जाए। सौभाग्य से, मैं ऐसे कुछ लोगों से जुड़ा हुआ हूँ जो प्राचीन लिपियों को पढ़ने में माहिर हैं। मैंने उनसे संपर्क किया और इस 1723 के दुर्लभ शिलालेख को बारीकी से पढ़वाया।

शिलालेख में स्पष्ट उल्लेख था कि इस पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी (Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi) की मरम्मत (या संभवतः पुनर्निर्माण) लाला भजन लाल, छवीला मल, भिक्का, लाला राम, श्रीगवालू और पिनानवा वालों द्वारा कराया गया था। "पिनानवा वालों" का ज़िक्र इस बात का प्रमाण है कि यह कार्य एक सामूहिक प्रयास था, जिसमें न केवल गाँव के लोग बल्कि आस-पास के क्षेत्रों के लोग भी शामिल हुए। यह उस दौर की सामाजिक एकता और सांस्कृतिक जुड़ाव का प्रमाण है।

1723 का यह वर्ष अपने आप में ऐतिहासिक दृष्टि से भी अहम था। उस समय मेवात का राजनीतिक परिदृश्य अस्थिर था। मुग़ल साम्राज्य के पतन के संकेत दिखाई देने लगे थे, और क्षेत्रीय सरदार अपने-अपने इलाकों में सत्ता मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे। मेवात भी इस राजनीतिक अस्थिरता से अछूता नहीं था। कई छोटे-बड़े शासकों के बीच संघर्ष चल रहे थे, जिससे आम जनता पर भारी असर पड़ा। ऐसे समय में, एक बड़े सामूहिक प्रयास से पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी की मरम्मत कराना केवल जल-प्रबंधन का ही नहीं, बल्कि सामुदायिक मजबूती का भी प्रतीक था।

इस तरह के निर्माण और मरम्मत कार्य उस समय केवल पानी के स्रोत को बनाए रखने के लिए नहीं, बल्कि स्थानीय समाज की पहचान और गौरव को जीवित रखने के लिए भी किए जाते थे। 1723 का दुर्लभ शिलालेख यह साबित करता है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों के बीच भी, लोग अपनी सांस्कृतिक और स्थापत्य धरोहरों को संरक्षित करने के लिए एकजुट होते थे।

आज जब हम इस बावड़ी को देखते हैं, तो यह केवल पत्थरों और पानी का मेल नहीं लगती — यह हमें उस युग की झलक दिखाती है, जब सामूहिक भावना, सांस्कृतिक विरासत और स्थानीय गौरव किसी भी राजनीतिक उथल-पुथल से कहीं अधिक मजबूत थे। यही वजह है कि पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी और इसका 1723 का दुर्लभ शिलालेख दोनों ही मेवात की विरासत में अनमोल स्थान रखते हैं।

1723 का दुर्लभ शिलालेख – असली शब्द

नीचे मैं इस 1723 का दुर्लभ शिलालेख सबसे पहले प्राचीन देवनागरी लिपि में, फिर आधुनिक हिंदी में, और अंत में अंग्रेजी अनुवाद में दे रहा हूँ, ताकि शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों को इसे समझने में आसानी हो।

(प्राचीन देवनागरी)
  • "इस कुवा बावड़ी की मरम्मत कराइ लाला भजन लाल, छवीला मल, ब्रजलाल भिक्का, लाला राम, अ्गवाल, पिनानवा वालेन ने, मिति प्रसाद पूदी ३ समत १ त १"
(आधुनिक हिंदी)
  • "इस बावड़ी का निर्माण/मरम्मत लाला भजन लाल, छवीला मल, भिक्का, लाला राम, श्रीगवालू और पिनानवा वालों ने कराया। यह कार्य सन 1723 में संपन्न हुआ।"
(English Translation)
  • "This stepwell was repaired/constructed by Lala Bhajan Lal, Chhveela Mal, Bhikka, Lala Ram, Shrigwalu, and the people of Pinanwa. This work was completed in the year 1723."

शब्दों का अर्थ और स्थानीय महत्व

  • बावड़ी – पानी संग्रह करने की पारंपरिक संरचना, जो गर्मियों में भी ठंडा पानी उपलब्ध कराती है।
  • पिनानवा वालेन – पिनानवा गाँव के निवासी। स्थानीय बोली में “वाले” शब्द किसी एक व्यक्ति के लिए होता है, जबकि “वालेन” शब्द एक से अधिक व्यक्तियों के लिए प्रयोग होता है। यह स्पष्ट करता है कि इस काम में पूरे समुदाय ने भाग लिया।
  • मिति 1723 – यहाँ 1723 विक्रमी संवत होने की संभावना है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार लगभग 1666 ईस्वी के आसपास आता है। यह उस समय का प्रमाण है जब पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी का निर्माण या मरम्मत हुई थी।


यह शिलालेख न केवल एक पत्थर पर खुदे हुए शब्द हैं, बल्कि यह उस दौर के सामुदायिक सहयोग, सामाजिक संरचना और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की गवाही भी देता है। आज यह पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जा सकता है, जो इसके असली इतिहास को सामने लाता है।

मेरी खोज की अहमियत

मेरे गहन शोध और छानबीन के अनुसार, 1723 का दुर्लभ शिलालेख पिंगावां गाँव की सबसे पुरानी प्रमाणित ऐतिहासिक लिखित सामग्री है। इससे पहले इस बावड़ी के बारे में केवल लोककथाएँ, बुजुर्गों के किस्से और किवदंतियाँ ही मौजूद थीं, जिनमें निर्माण-काल और वास्तविक इतिहास के बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं था। लेकिन इस शिलालेख ने न केवल पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी के निर्माण-काल को स्पष्ट किया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि इसका निर्माण या मरम्मत किसी एक शासक के आदेश से नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयास से हुई थी।

शिलालेख में दर्ज नाम यह दर्शाते हैं कि उस समय गाँव के प्रभावशाली और सामान्य लोग मिलकर ऐसे बड़े काम को अंजाम देते थे। “पिनानवा वालेन” का उल्लेख इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि पड़ोसी गाँवों ने भी इसमें योगदान दिया। यह उस युग की सामाजिक एकजुटता और आपसी सहयोग की मिसाल है।

मैं, नासिर हुसैन (सोशल मीडिया और इतिहास-प्रेमी जगत में नासिर बुचिया के नाम से जाना जाता हूँ), लंबे समय से मेवात की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों पर काम कर रहा हूँ। इससे पहले मैंने मेवात का इतिहास, मेवात के टॉप 5 महल, और हिस्ट्री ऑफ मेवात जैसे कई शोध-आधारित लेख लिखे हैं। लेकिन पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी और इसके 1723 के दुर्लभ शिलालेख की खोज मेरे लिए विशेष महत्व रखती है, क्योंकि यह न केवल एक पुरातन धरोहर का दस्तावेज़ी सबूत है, बल्कि यह मेवात की सामुदायिक भावना और स्थापत्य कौशल की भी कहानी कहता है।

इस खोज से यह स्पष्ट होता है कि हमारे गाँवों में आज भी ऐसी अनगिनत धरोहरें छुपी हुई हैं, जिनकी सही जानकारी केवल तभी सामने आएगी, जब हम उन्हें शोध, दस्तावेज़ और प्रमाणों के आधार पर समझने की कोशिश करेंगे।

निष्कर्ष

 
पिंगावां की ऐतिहासिक बावड़ी (Pinagwan Ki Aitihasic Bavdi) केवल एक साधारण जल संरचना नहीं है, बल्कि यह मेवात की सामाजिक एकता, सामुदायिक प्रयास और सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रमाण है। इसके साथ जुड़ा 1723 का दुर्लभ शिलालेख हमें यह एहसास कराता है कि हमारा अतीत केवल लोककथाओं और बुजुर्गों की बातों में ही नहीं, बल्कि पत्थरों पर खुदे हुए अक्षरों में भी सहेजा गया है। ऐसे शिलालेख हमें न केवल इतिहास से जोड़ते हैं, बल्कि हमें अपनी विरासत को पहचानने और संरक्षित करने की प्रेरणा भी देते हैं।

आज जब हम इस बावड़ी को देखते हैं, तो यह हमें यह याद दिलाती है कि एकजुटता और सामूहिक प्रयास किसी भी राजनीतिक या सामाजिक चुनौती से अधिक मजबूत हो सकते हैं। यह सिर्फ पानी का स्रोत नहीं, बल्कि मेवात की पहचान और गौरव का प्रतीक है।  

रेफरेंस और क्रेडिट:
गाँव के बुजुर्गों और जानकारों से वार्ता
शोध एवं लेखन में मदद: मेरे मित्रगण और ChatGPT की ऐतिहासिक सामग्री विश्लेषण



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