Delhi History: खुसरू शाह और हौज़-ए-नाहत का युद्ध

 

Delhi History – Nasir-ud-Din Khusrau Shah)

Delhi History की सबसे रोचक बात यह है कि यहाँ की गद्दी पर कभी तलवार से जीते हुए शासक बैठे, तो कभी षड्यंत्र और चालाकी से सत्ता हथियाने वाले भी। लेकिन शायद ही कोई ऐसा उदाहरण हो, जहाँ एक गुलाम से उठकर कोई व्यक्ति इतने कम समय में दिल्ली का सुल्तान बन गया हो और फिर उतनी ही तेजी से नीचे गिर पड़ा हो। यह कहानी है हसन नामक युवक की, जो आगे चलकर इतिहास में Nasir-ud-Din खुसरू शाह के नाम से जाना गया।

खुसरू शाह की असली पृष्ठभूमि बहुत दिलचस्प है। वह बारादस समुदाय से थे। यह समुदाय दिल्ली सल्तनत के शुरुआती दौर में न तो शासक वर्ग का हिस्सा था और न ही अमीरों की पंक्ति में गिना जाता था। दरअसल, खिलजी वंश के सुल्तानों ने इन लोगों को गुलाम बनाया और बाद में इन्हें इस्लाम में धर्मांतरित कर अपने प्रशासन में जगह देना शुरू किया। इस धर्मांतरण ने उन्हें समाज में नई पहचान दी, लेकिन अमीर और तुर्क-अफगान सरदारों के लिए वे हमेशा “निचले दर्जे” के ही माने जाते रहे।

यही हसन यानी खुसरू शाह, धीरे-धीरे खिलजी दरबार की सीढ़ियाँ चढ़ता गया। पहले वह छोटे पदों पर रहा, फिर भरोसेमंद सेवक के रूप में पहचाना गया और अंततः सुल्तान मुबारक शाह का प्रिय हो गया। मुबारक शाह का स्वभाव लापरवाह था और वह दरबार के बजाय ऐशो-आराम में ज्यादा मशगूल रहता था। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर हसन ने दरबार में अपनी पकड़ मजबूत कर ली।

अब Delhi History यहाँ एक नया मोड़ लेती है। 1320 ईस्वी में, जब दिल्ली की सल्तनत पहले ही षड्यंत्रों और असंतोष से जूझ रही थी, खुसरू शाह ने एक साहसी कदम उठाया। उसने अपने ही मालिक और सुल्तान मुबारक शाह की हत्या कर दी। यह हत्या किसी गुप्त साजिश का हिस्सा थी, जिसे खुसरू ने अपने खास साथियों की मदद से अंजाम दिया।

मुबारक शाह के मरते ही दरबार में हड़कंप मच गया। हर कोई सोच रहा था कि अब गद्दी पर कौन बैठेगा। लेकिन हसन ने बिना देर किए खुद को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया। उसने नया नाम और नई उपाधि धारण की – "नासिर-उद-दीन खुसरू शाह"। इस नाम के साथ उसने खुद को वैध शासक दिखाने की कोशिश की।

Delhi History के लिहाज़ से यह एक अनोखा क्षण था। क्योंकि दिल्ली जैसी राजधानी, जहाँ तुर्क-अफगान सरदारों और अमीरों का दबदबा था, वहाँ अचानक एक धर्मांतरित गुलाम गद्दी पर बैठ गया। उसके समर्थक ज़्यादातर बारादस थे, जिन्होंने अब तक सत्ता के हाशिए पर जीवन बिताया था। उनके लिए खुसरू शाह का सुल्तान बनना किसी सपने से कम नहीं था।

खुसरू शाह ने गद्दी संभालते ही अपने लोगों को बड़े पदों पर बैठाना शुरू कर दिया। जिन बारादस ने वर्षों तक अमीरों के आदेश माने थे, वे अब प्रशासनिक कुर्सियों पर बैठ गए। यह बदलाव अचानक था और बहुतों को रास नहीं आया। अमीरों को यह अपमानजनक लगा कि एक गुलाम और उसके साथी अब उन्हें आदेश देंगे।

लेकिन खुसरू शाह के लिए यह गौरव का क्षण था। उसने सोचा कि अब सत्ता उसके हाथ में है और वह इसे हमेशा के लिए सुरक्षित कर लेगा। उसने अपने दरबार में भव्य समारोह किए, सोने-चांदी की बरसात की और जनता में यह संदेश देने की कोशिश की कि दिल्ली का नया शासक जनता का हितैषी है।

हालाँकि, Delhi History हमें बताती है कि सत्ता सिर्फ दिखावे और धन-दौलत से सुरक्षित नहीं होती। उसके लिए जरूरी है वैधता, जनता का विश्वास और अमीरों का समर्थन। खुसरू शाह के पास इनमें से कोई भी ठोस आधार नहीं था। वह तलवार और चालाकी से तो गद्दी तक पहुँच गया, लेकिन उसके चारों ओर गहरी नाराजगी और अविश्वास का माहौल बन चुका था। यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसने आगे चलकर खुसरू शाह की दो महीने की सल्तनत को Delhi History की सबसे छोटी और विवादास्पद सल्तनत बना दिया।

सत्ता की बेचैनी और दरबार का असंतोष

 

सत्ता की बेचैनी और दरबार का असंतोष

Delhi History में जब भी सत्ता का अचानक परिवर्तन हुआ है, तो उसके बाद दरबार के भीतर खामोश असंतोष की लहर ज़रूर उठी है। खुसरू शाह का मामला भी इससे अलग नहीं था। जिस तेजी से उसने सुल्तान मुबारक शाह की हत्या कर गद्दी हथिया ली, उतनी ही तेजी से उसके खिलाफ असंतोष का बीज भी अंकुरित हो गया।

दरबार की बुनियाद लंबे समय से तुर्क-अफगान अमीरों पर टिकी थी। यही लोग दिल्ली सल्तनत की नीतियों को आकार देते थे और यही सेना तथा प्रांतों पर नियंत्रण रखते थे। खुसरू शाह जब गद्दी पर बैठा, तो उसने सबसे पहले इन्हीं अमीरों की शक्ति को काटने की कोशिश की। उसने अपने बारादस साथियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना शुरू कर दिया। अब वे लोग, जो कल तक गुलाम थे और केवल आदेश मानते थे, सत्ता के उच्च पदों पर बैठकर आदेश देने लगे।

यह दृश्य दरबार के लिए असहज कर देने वाला था। Delhi History में पहली बार ऐसा हो रहा था कि एक धर्मांतरित गुलाम, जिसकी नस्ल तुर्क-अफगानों से अलग थी, सुल्तान बना था। तुर्क अमीर इसे अपनी बेइज्ज़ती मानते थे। वे कहते थे कि दिल्ली की गद्दी का अपमान हो रहा है।

खुसरू शाह की यह नीति केवल तुर्क अमीरों को ही नहीं, बल्कि धार्मिक वर्ग यानी उलमा और सूफियों को भी अखर गई। इस्लामी समाज में शासक की वैधता का एक बड़ा हिस्सा उसकी सामाजिक स्वीकृति से आता था। लेकिन खुसरू शाह का आधार केवल बारादस तक सीमित था, जो खुद हाल ही में इस्लाम में आए थे। इसका सीधा मतलब था कि धर्मगुरुओं और शाही प्रतिष्ठान ने उसे दिल से स्वीकार नहीं किया।

जौना का साहसी पलायन

 

इस बेचैनी के बीच एक और अहम किरदार सामने आता है – फखर-उद-दीन जौना, जो आगे चलकर मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उस समय जौना शाही अस्तबल का प्रभारी था। बारादस के बढ़ते प्रभुत्व ने उसकी आंखें खोल दी थीं। उसे लग रहा था कि अगर यह स्थिति लंबे समय तक रही, तो न केवल दरबार का संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि दिल्ली सल्तनत की नींव भी हिल जाएगी।

Delhi History का यह हिस्सा बेहद दिलचस्प है। जौना ने खुसरू शाह पर सीधे वार करने के बजाय एक रणनीतिक पलायन की योजना बनाई। उसने अपने भरोसेमंद साथियों को इकट्ठा किया और अपने पिता गाजी मलिक तुगलक, जो दीपलपुर के गवर्नर थे, को संदेश भेजा। यह संदेश गुप्त रूप से अली याघदी नामक दूत के जरिए पहुँचा, जिसमें दिल्ली की स्थिति का विस्तार से वर्णन था।

इस बीच, खुसरू शाह अपनी तरफ से सब कुछ ठीक दिखाने की कोशिश करता रहा। उसने अमीरों को सोने-चांदी से लुभाना चाहा, जनता को उत्सवों और दान से प्रभावित करने की कोशिश की। लेकिन दरबार में उसकी पकड़ कमजोर होती जा रही थी। उसके आदेशों का पालन मजबूरी में हो रहा था, निष्ठा से नहीं।

इब्न बत्तूता का विवरण इस दौर की बेचैनी को और स्पष्ट करता है। वह लिखता है कि जौना ने खुसरू से कहा कि उसके घोड़ों को व्यायाम की ज़रूरत है, ताकि वे मजबूत बने रहें। खुसरू ने इस बात पर संदेह नहीं किया और जौना को रोज़ अस्तबल से घोड़ों को बाहर ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन यह दरअसल एक चतुराई थी। जौना हर दिन बेहतरीन घोड़ों का चयन करता और धीरे-धीरे अपने वफादार सैनिकों को तैयार करता रहा।

अंततः एक दिन आया जब जौना अपने विश्वस्त सैनिकों और अस्तबल के चुने हुए घोड़ों के साथ चुपचाप दिल्ली से निकल गया। यह कोई साधारण भागना नहीं था, बल्कि Delhi History का एक निर्णायक क्षण था। यह खुसरू शाह की सल्तनत के अंत की शुरुआत थी।

खुसरू शाह को जब इस पलायन की खबर मिली, तो वह अंदर से काँप उठा। उसे एहसास हो गया कि सत्ता की नींव हिल चुकी है। उसके बारादस साथी वफादार थे, लेकिन उनकी संख्या और अनुभव तुर्क-अफगान अमीरों की शक्ति के सामने कमज़ोर पड़ रहे थे।

इस तरह खुसरू शाह का शासन, जो बाहर से भव्य और चमकदार दिखाई देता था, भीतर से खोखला साबित होने लगा। Delhi History में यह साफ दिखता है कि दरबार के असंतोष ने उसकी सल्तनत को भीतर से खोखला कर दिया था और उसका पतन अब केवल समय की बात रह गया था।

खुसरू शाह की भूलें और तुगलक की तैयारी

 

खुसरू शाह की भूलें

Delhi History बार-बार यह सिखाती है कि किसी शासक का सबसे बड़ा दुश्मन उसकी अपनी गलतियाँ होती हैं। खुसरू शाह का छोटा-सा शासन भी इसका जीता-जागता उदाहरण है। गद्दी पर बैठते ही उसने ऐसे कई कदम उठाए, जो न केवल रणनीतिक भूलें साबित हुईं, बल्कि उसके पतन की नींव भी बन गईं। दूसरी तरफ, गाजी मलिक तुगलक और उसका बेटा जौना पूरी तैयारी के साथ धीरे-धीरे खुसरू के खिलाफ मैदान तैयार कर रहे थे।

खुसरू शाह की पहली और सबसे बड़ी भूल थी खिलजी वंश के शेष राजकुमारों की हत्या। अलाउद्दीन खिलजी के तीन अंधे पुत्र – अली, बहर और उस्मान – वर्षों से महल में कैद थे। उन्हें लाल वस्त्र पहनाकर इस तरह रखा गया था कि वे राजनीति के लिए कोई खतरा न बन सकें। लेकिन जब जौना दिल्ली से भाग निकला और तुगलक की शक्ति बढ़ने लगी, तो खुसरू शाह डर गया। उसे लगा कि कहीं ये कैदी जनता और अमीरों के लिए एक वैकल्पिक नेतृत्व न बन जाएँ। भय और क्रोध में आकर उसने उन्हें बेरहमी से मरवा डाला।

 

Delhi History बताती है कि यह कदम उसकी सबसे बड़ी रणनीतिक भूल थी। क्योंकि इससे जनता और खासकर पुराने अमीरों में गहरा आक्रोश फैल गया। लोग मानने लगे कि खुसरू शाह न केवल गद्दार है, बल्कि खिलजी वंश के प्रति भी बेवफा है। यह धारणा तुगलक के लिए एक मजबूत हथियार बनी, जिसने खुद को “खिलजी वंश के रक्षक” के रूप में पेश किया।

दूसरी भूल थी – धन और सोने-चांदी से अमीरों को खरीदने की कोशिश। खुसरू जानता था कि अमीर उससे खुश नहीं हैं, इसलिए उसने उन्हें सोने की थैलियाँ और उपहार बाँटे। कुछ समय तक लोग चुप रहे, लेकिन Delhi जैसे बड़े शहर में वफादारी केवल धन से नहीं खरीदी जा सकती थी। यहाँ सत्ता की वैधता, खून का रिश्ता और धार्मिक स्वीकृति कहीं अधिक अहम थीं। खुसरू शाह इन सबमें पीछे था।

तीसरी भूल थी – तुगलक की ताकत को कम आंकना। जब उसे खबर मिली कि जौना अपने पिता गाजी मलिक के पास पहुँच चुका है, तो उसने एक छोटी सी सेना शिस्ता खान की अगुवाई में भेजी। लेकिन यह सेना बिना किसी उपलब्धि के वापस लौट आई। जौना और तुगलक पहले से ही तैयार बैठे थे। दीपलपुर का किला मज़बूत था और वहाँ की जनता भी तुगलक के साथ थी।

इसी दौरान, खुसरू शाह ने तुगलक से सुलह करने की भी कोशिश की। उसने दूत भेजकर प्रस्ताव रखा कि तुगलक को उसके राज्य की स्वायत्तता मिल सकती है, यहाँ तक कि उसका क्षेत्र भी बढ़ाया जा सकता है। लेकिन तुगलक को समझ आ गया था कि खुसरू अब डगमगाने लगा है। उसने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बल्कि इसके उलट उसने अपने दूत के ज़रिये खुसरू को चुनौती दी और संकेत दिया कि अब टकराव तय है।

यहाँ पर तुगलक की तैयारी देखने लायक थी। उसने केवल सेना नहीं जुटाई, बल्कि राजनीतिक समर्थन भी बटोरना शुरू किया। उसने उत्तरी भारत के कई गवर्नरों और अमीरों को पत्र भेजे। इन पत्रों में खुसरू शाह को “गद्दार” और “इस्लाम का दुश्मन” बताया गया। साथ ही तुगलक ने खुद को धर्म और सल्तनत का सच्चा रक्षक घोषित किया।

Delhi History इस बात की गवाही देती है कि तुगलक की यह रणनीति बेहद कारगर रही। बहरम अबिया, उच का गवर्नर, बिना किसी झिझक के तुगलक से आ मिला। मुल्तान, सिविस्टन और जेलोर के कई अमीरों ने भी उसका समर्थन करना शुरू कर दिया। सबसे अहम बात यह रही कि शक्तिशाली खोकर योद्धा भी तुगलक की सेना में शामिल हो गए।

खुसरू शाह को यह सब खबरें मिलती रहीं। हर खबर उसकी नींद उड़ा देती। कभी वह अमीरों को सोना बाँटकर शांत करने की कोशिश करता, कभी सेना जुटाने के आदेश देता। लेकिन उसकी स्थिति दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गई।

दूसरी तरफ, तुगलक पूरी तैयारी से Delhi की ओर बढ़ रहा था। उसने रास्ते में आने वाले कारवां को रोका, राजस्व और घोड़ों पर कब्ज़ा किया और अपनी सेना को और मज़बूत बनाया। उसके बेटे जौना ने हर जगह खोकरों और अमीरों को अपने साथ जोड़ने का काम किया। धीरे-धीरे दिल्ली पर चढ़ाई का माहौल पूरी तरह तैयार हो गया।

खुसरू शाह की ग़लतियाँ और तुगलक की तैयारी – यह वही समीकरण था, जिसने Delhi History को एक नया मोड़ दिया। खुसरू शाह के कदम उसकी कमजोरी साबित हो रहे थे, जबकि तुगलक का हर कदम उसे मजबूत बना रहा था। अब दोनों सेनाओं के बीच निर्णायक भिड़ंत तय थी।

निर्णायक युद्ध: हौज़-ए-नाहत की सुबह

 

निर्णायक युद्ध: हौज़-ए-नाहत की सुबह

Delhi History में कई युद्ध ऐसे दर्ज हैं जिन्होंने पूरी सल्तनत की दिशा बदल दी। लेकिन 1320 ईस्वी की वह सुबह, जब सरसुति नदी के पास हौज़-ए-नाहत के मैदान में दो सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं, वास्तव में एक निर्णायक मोड़ था। यह केवल तलवारों का टकराव नहीं था, बल्कि सत्ता, वैधता और इतिहास की बागडोर के लिए लड़ी जाने वाली जंग थी। एक ओर था Nasir-ud-Din Khusrau Shah, जो दो महीने की सत्ता को बचाने के लिए बेताब था; दूसरी ओर था गाजी मलिक तुगलक, जिसके पास अनुभव, रणनीति और बढ़ती हुई ताकत थी।

खुसरू शाह जानता था कि अब टकराव टल नहीं सकता। उसने अपने भाई खान-ए-खानन की कमान में एक विशाल सेना तैयार की। सेना को चार हिस्सों में बाँटा गया। केंद्र में स्वयं Nasir-ud-Din Khusrau Shah खड़ा था, उसके सिर पर राजसी छत्र यानी परसोल तना हुआ था। यह छत्र केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं था, बल्कि सुल्तान होने की पहचान और वैधता का प्रतीक था। अग्रिम मोर्चे की कमान कुतला को दी गई, बाएँ हिस्से पर तलबागा याघदा खड़ा था और दाहिने हिस्से में नाग, काचिप और वर्मा जैसे बारादस सेनापति अपने सैनिकों के साथ तैनात थे।

लेकिन Delhi History हमें बताती है कि युद्ध में केवल संख्याबल ही काम नहीं आता। असली फर्क पड़ता है रणनीति और मनोबल से। तुगलक की ओर से युद्ध की योजना कहीं अधिक संगठित थी। खुद गाजी मलिक तुगलक सेना के केंद्र में खड़ा था। उसके साथ उसका बेटा जौना (भविष्य का मुहम्मद बिन तुगलक) था, जिसके चारों ओर खोकर योद्धा तैयार खड़े थे। बाईं ओर बहरम अबिया की टुकड़ी थी और दाहिनी ओर असद-उद-दीन तथा बहाउद्दीन गरशास्प की टुकड़ी ने मोर्चा संभाल रखा था।

सुबह का समय था। सूरज की पहली किरणें दोनों सेनाओं के चमकते हथियारों पर पड़ रही थीं। युद्ध का बिगुल बजते ही खोकर योद्धाओं ने कुतला के मोर्चे पर जबरदस्त हमला बोला। यह हमला इतना तीव्र और भयंकर था कि कुतला अपने घोड़े से गिर पड़ा और तुरंत मारा गया। उसके मरते ही उसकी पूरी टुकड़ी बिखर गई। वे सैनिक, जिन्हें खुसरू ने “निष्ठावान” मान रखा था, घबराकर केंद्र की ओर भाग निकले।

यह Nasir-ud-Din Khusrau Shah की सेना के लिए पहला बड़ा झटका था। इससे पहले कि वह स्थिति संभाल पाता, तुगलक की सेना ने केंद्र पर धावा बोल दिया। खान-ए-खानन, जिसने पहले कभी किसी बड़ी सेना का नेतृत्व नहीं किया था, घबरा गया। उसने अपने साथियों – यूसुफ सूफी खान, शिस्ता खान और काद्र खान – के साथ युद्धभूमि छोड़कर भाग जाने का निर्णय लिया। जब सेना का सेनापति ही भाग खड़ा हो, तो सैनिकों का मनोबल कैसे बना रह सकता है?

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युद्ध के दौरान एक और प्रतीकात्मक घटना हुई, जिसने Delhi History में गहरी छाप छोड़ी। खोकर प्रमुख गुला ने खुसरू शाह की सेना के छत्रवाहक को मार डाला और उसका राजसी छत्र छीन लिया। यह छत्र तुरंत गाजी मलिक तुगलक के सिर पर तान दिया गया। अब पूरे मैदान में यह खबर फैल गई कि सत्ता का छत्र बदल चुका है। यह केवल एक युद्ध की विजय नहीं थी, बल्कि यह घोषणा थी कि दिल्ली की गद्दी अब Nasir-ud-Din Khusrau Shah से छिनकर तुगलक के हाथों में जा रही है।

खुसरू शाह की सेना टूट चुकी थी। उसके सैनिक भाग रहे थे, कुछ आत्मसमर्पण कर रहे थे और कुछ तुगलक की सेना में शामिल हो रहे थे। खुद खुसरू शाह भय और निराशा से घिर गया। उसने समझ लिया कि अब उसकी दो महीने की सल्तनत का अंत निश्चित है।

युद्ध खत्म होने के बाद गाजी मलिक तुगलक विजयी होकर आगे बढ़ा। उसने दिल्ली की ओर कूच किया और राजधानी के पास पहुँचकर सुल्ताना रज़िया की कब्र के परिसर में डेरा डाला। यहाँ से उसने अपनी सेना को पुनः व्यवस्थित किया और अगले कदम की योजना बनाई। अब दिल्ली का दरवाज़ा उसके लिए खुल चुका था।

Delhi History के इस अध्याय से यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल संख्याबल या धनबल से राज नहीं चलता। खुसरू शाह के पास सेना थी, सोना था, लेकिन वैधता और रणनीति की कमी थी। तुगलक के पास यह दोनों चीजें थीं और यही कारण था कि वह विजयी हुआ।

इस निर्णायक युद्ध ने दिखा दिया कि Delhi History में सत्ता हमेशा उसी को मिलती है, जिसके पास जनता का समर्थन, अमीरों की वफादारी और युद्ध की कला तीनों हों। Nasir-ud-Din Khusrau Shah इन तीनों में असफल रहा और गाजी मलिक तुगलक ने इन तीनों का उपयोग कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।

युद्धभूमि के नायक और पराजित: Delhi History की सेना-संरचना

 

Delhi History battle of Hauz-i-Nahat

Delhi History के उस निर्णायक मोड़ पर, जब Nasir-ud-Din Khusrau Shah और ग़ाज़ी मलिक तुगलक आमने-सामने आए, तो केवल तलवारों की टक्कर ही नहीं हुई, बल्कि सैकड़ों कमांडरों और सेनापतियों ने अपने-अपने भाग्य की बाज़ी लगाई। हर एक नाम, हर एक अमीर और गवर्नर अपने पीछे एक कहानी लिए खड़ा था। आइए, ज़रा विस्तार से देखें कि इन दोनों सेनाओं में कौन-कौन थे और उनकी भूमिका क्या रही।


Nasir-ud-Din Khusrau Shah की सेना के प्रमुख चेहरे

खुसरू शाह की सेना का दिल उसके बारादस साथी थे। लगभग दस हज़ार बारादु घुड़सवार उसके चारों ओर तैनात थे। ये वही लोग थे जिन्हें दिल्ली के पुराने अमीर “निम्न” मानते थे, लेकिन खुसरू ने उन्हें सत्ता के केंद्र तक पहुँचा दिया।

  • केंद्र में स्वयं खुसरू शाह – सिर पर तना हुआ शाही छत्र उसके वैध सुल्तान होने की घोषणा कर रहा था। परंतु यह छत्र जल्द ही उसकी हार का प्रतीक बनने वाला था।

  • खान-ए-खानन (खुसरू का भाई) – सेना का नाममात्र का सेनानायक, जिसके पास अनुभव की कमी थी। युद्ध की गरमी में यह अनुभवहीनता साफ झलक उठी और वह युद्धभूमि छोड़कर भाग निकला।

  • कुतला – अग्रिम मोर्चे का सेनापति। जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, खोकर योद्धाओं के पहले ही हमले में घोड़े से गिरकर मारा गया। उसकी मौत ने सेना का मनोबल तोड़ दिया।

  • तलबागा याघदा – बाएँ हिस्से का कमांडर। उसने कुछ देर तक मोर्चा संभाला लेकिन जल्द ही उसकी टुकड़ी बिखर गई।

  • नाग, काचिप और वर्मा – ये बारादस नेता दाहिने हिस्से में तैनात थे। उनका युद्ध कौशल उतना प्रभावी नहीं था और खोकर योद्धाओं के सामने ये टिक नहीं पाए।

  • यूसुफ सूफी खान, शिस्ता खान और काद्र खान – ये वरिष्ठ अफसर माने जाते थे, लेकिन जैसे ही हालात बिगड़े, इन्होंने भी सेनापति खान-ए-खानन के साथ भागने में ही अपनी भलाई समझी।

  • अन्य अधिकारी – अम्बर बुग़रा खान, तिगिन (आवध का शासक), बहाउद्दीन दबी़र, कमालुद्दीन सूफी, काफ़ुर मुहरदार – ये नाम स्रोतों में मिलते हैं। लेकिन Delhi History के इस युद्ध में इनमें से कोई भी निर्णायक भूमिका निभाने में सफल नहीं रहा।

खुसरू शाह की सेना दिखने में भले विशाल थी, लेकिन उसकी रीढ़ अनुभवहीन कमांडरों और बेमन सैनिकों पर टिकी थी।


ग़ाज़ी मलिक तुगलक की सेना के प्रमुख चेहरे

अब जरा नज़र डालें ग़ाज़ी मलिक तुगलक की सेना पर। यह सेना संख्या में भले कम हो, लेकिन इसमें अनुशासन, रणनीति और क्षेत्रीय सहयोग की शक्ति थी।

  • ग़ाज़ी मलिक तुगलक (ग़ियासुद्दीन तुगलक) – दीपलपुर का गवर्नर और एक कुशल सेनापति। उसने वर्षों तक सीमावर्ती इलाकों में लड़ाइयाँ लड़ी थीं। इस अनुभव ने उसे रणनीतिक सोच दी थी।

  • फखर-उद-दीन जौना (भविष्य का मुहम्मद बिन तुगलक) – युवा होते हुए भी बेहद महत्वाकांक्षी। दिल्ली से साहसी पलायन कर पिता के पास पहुँचा और युद्धभूमि पर उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ।

  • बह्रम अबिया – उच का गवर्नर। यह वही शख्स था जिसने बिना किसी हिचकिचाहट के तुगलक का साथ दिया और अपनी टुकड़ी लेकर युद्ध में शामिल हुआ। उसकी निष्ठा ने तुगलक की शक्ति को और बढ़ा दिया।

  • गुल चंद्र (खोकर प्रमुख) – खोकर जाति का निडर योद्धा, जिसने अग्रिम मोर्चे पर हमला बोला। उसी के हमले ने कुतला को मार गिराया और युद्ध की दिशा पलट दी।

  • साहज राय – एक और खोकर नेता, जिसने अपने योद्धाओं के साथ दुश्मन की टुकड़ियों पर धावा बोला।

  • असद-उद-दीन और बहाउद्दीन गरशास्प – तुगलक के रिश्तेदार और विश्वसनीय साथी। इन्होंने दाहिनी ओर मोर्चा संभाला और बिखरती टुकड़ियों को संगठित रखा।

  • मुहम्मद शाह (सिविस्तान का गवर्नर) – प्रारंभ में बंदी था, लेकिन बाद में तुगलक से आ मिला। उसकी टुकड़ी युद्धभूमि तक तो नहीं पहुँच सकी, लेकिन उसका समर्थन तुगलक के राजनीतिक अभियान को वैधता देता था।

  • अन्य सहयोगी – नूरमंद (अफ़गान नेता), करी (मंगोल मूल का सेनापति), अली हैदर – ये भी तुगलक के साथ जुड़े। इन नामों से स्पष्ट है कि तुगलक की सेना विविध जातियों और पृष्ठभूमियों से बनी थी।

तुगलक की सबसे बड़ी ताकत थी – अनुभव और वैधता। वह केवल तलवार नहीं चला रहा था, बल्कि अपनी लड़ाई को इस्लाम की रक्षा और खिलजी वंश की वफादारी का रंग दे रहा था।


Delhi History का सबक

जब हम Delhi History के इस निर्णायक युद्ध को देखते हैं, तो साफ दिखता है कि केवल संख्या से विजय तय नहीं होती।

  • Nasir-ud-Din Khusrau Shah की सेना बड़ी थी, लेकिन अनुभवहीन और अव्यवस्थित।

  • तुगलक की सेना अपेक्षाकृत छोटी थी, लेकिन उसमें विविधता, रणनीति और अनुशासन था।

युद्धभूमि पर अंततः वही जीता, जिसके पास संगठन, अनुभव और जनता-अमीरों का समर्थन था। और इसी ने Delhi History को नया अध्याय दिया — खुसरू शाह की हार और तुगलक वंश का उदय।

Nasir-ud-Din Khusrau Shah की सल्तनत का अंत और तुगलक सल्तनत का उदय

 

Nasir-ud-Din Khusrau Shah

Delhi History में सत्ता का उत्थान और पतन पल भर में होता है। 1320 ईस्वी का वह दौर इसका सजीव उदाहरण है। Nasir-ud-Din Khusrau Shah, जिसने छल और साजिश से दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा किया था, मात्र दो महीने बाद उसी गद्दी से बेदखल होकर इतिहास में एक चेतावनी की तरह दर्ज हो गया। दूसरी ओर, ग़ाज़ी मलिक तुगलक ने इस पतन को अपने उदय का आधार बना लिया और दिल्ली सल्तनत में एक नए वंश की नींव रख दी।


खुसरू शाह का पतन: वैधता का संकट

खुसरू शाह का शासन शुरू से ही संकटग्रस्त था। उसने भले ही खुद को “नासिर-उद-दीन” की उपाधि देकर वैधता दिखाने की कोशिश की, लेकिन Delhi History साफ कहती है कि वैधता केवल नाम से नहीं मिलती। जनता और अमीरों की स्वीकृति उसके पीछे नहीं थी।

उसके फैसले उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बने।

  • उसने खिलजी वंश के बचे हुए राजकुमारों की हत्या कर दी। यह कदम उसे सुरक्षित करने के बजाय जनता और अमीरों के गुस्से को और बढ़ा गया।

  • उसने अपने बारादस अनुयायियों को बड़े पदों पर बैठाया। पुराने तुर्क-अफगान सरदारों के लिए यह अपमान था, क्योंकि सदियों से दिल्ली की गद्दी पर उन्हीं का दबदबा रहा था।

  • उसने अमीरों की वफादारी खरीदने के लिए सोना-चांदी बाँटा, लेकिन यह रिश्ता पैसे से ज्यादा देर तक नहीं टिक सका।

इन सब कारणों ने मिलकर खुसरू शाह को भीतर से कमजोर बना दिया। जब तुगलक सेना दिल्ली की ओर बढ़ी, तो उसकी स्थिति कागज़ी महल जैसी थी — बाहर से भव्य, भीतर से खोखली।


तुगलक का उदय: रणनीति और समर्थन

ग़ाज़ी मलिक तुगलक का उदय केवल तलवार की ताकत पर नहीं था। उसने अपने अभियान को धार्मिक और राजनीतिक दोनों रंग दिए।

  • उसने खुद को खिलजी वंश का रक्षक बताया और कहा कि खुसरू शाह गद्दार है जिसने वैध वंशजों की हत्या की।

  • उसने अपनी लड़ाई को इस्लाम की रक्षा और सल्तनत की स्थिरता का नाम दिया।

  • उसने पंजाब और सिंध के अमीरों, खोकर योद्धाओं और कई गवर्नरों का समर्थन जुटाया।

इस रणनीति ने उसकी सेना को न केवल मज़बूत किया, बल्कि उसे जनता और अमीरों के बीच वैधता भी दिलाई।


निर्णायक टकराव और सत्ता परिवर्तन

हौज़-ए-नाहत की निर्णायक लड़ाई में खुसरू शाह की हार के बाद कहानी लगभग तय हो गई थी। जब खोकर प्रमुख गुला ने खुसरू के छत्रवाहक को मारकर शाही छत्र छीन लिया और तुगलक के सिर पर तान दिया, तो यह प्रतीकात्मक रूप से सत्ता परिवर्तन की घोषणा थी।

पराजित खुसरू शाह दिल्ली भागा, लेकिन उसकी कोई भी योजना कामयाब नहीं हुई। उसके समर्थक बिखर चुके थे। अमीर, जिन्हें उसने सोने से लुभाने की कोशिश की थी, अब तुगलक की ओर झुक गए।

आखिरकार, Nasir-ud-Din Khusrau Shah को पकड़ लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई। उसका सिर काटकर ग़ाज़ी मलिक तुगलक के सामने पेश किया गया। Delhi History के पन्नों में यह घटना स्पष्ट संदेश देती है कि छल और धन से टिकाई गई सत्ता लंबी नहीं चल सकती।


तुगलक वंश का उदय

खुसरू शाह की मौत के साथ ही दिल्ली सल्तनत में एक नए युग की शुरुआत हुई। ग़ाज़ी मलिक तुगलक, जो अब ग़ियासुद्दीन तुगलक के नाम से जाना गया, दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

  • उसने अपनी राजधानी को संगठित किया और सल्तनत की सीमाओं को मज़बूत किया।

  • उसका शासन खिलजी वंश की अव्यवस्था से अलग, अधिक संगठित और कठोर अनुशासन पर आधारित था।

  • तुगलक ने यह साबित कर दिया कि सत्ता केवल तलवार से नहीं, बल्कि वैधता और प्रशासनिक क्षमता से टिकती है।

उसके बाद Delhi History ने तुगलक वंश को कई दशकों तक देखा, जिसमें मुहम्मद बिन तुगलक और फिर फ़िरोज़ शाह तुगलक जैसे शासक सामने आए।


Delhi History से शिक्षा

Nasir-ud-Din Khusrau Shah की दो महीने की सल्तनत और उसके तुरंत बाद तुगलक वंश का उदय, Delhi History में यह सिखाता है कि सत्ता केवल छल, धन और अस्थायी समर्थन पर आधारित नहीं हो सकती।

  • खुसरू शाह असफल रहा क्योंकि उसके पास वैधता और जनता का विश्वास नहीं था।

  • तुगलक सफल हुआ क्योंकि उसने राजनीतिक समर्थन, रणनीतिक योजना और धार्मिक वैधता तीनों का सहारा लिया।

यही कारण है कि Delhi History का यह अध्याय, भले ही छोटा हो, लेकिन बेहद शिक्षाप्रद और गूंजदार है। यह बताता है कि सत्ता का असली आधार केवल ताकत नहीं, बल्कि स्थिरता और स्वीकार्यता है।


Delhi History से सीख और निष्कर्ष

 

Delhi History battle

Delhi History की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यह केवल घटनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि सबक़ों की किताब भी है। हर अध्याय, हर शासक और हर युद्ध हमें यह सिखाता है कि सत्ता का उत्थान और पतन किन नींवों पर खड़ा होता है। Nasir-ud-Din Khusrau Shah की छोटी-सी सल्तनत और उसके बाद तुगलक वंश का उदय इसी बात का जीवंत उदाहरण है।


सत्ता का अस्थायित्व

Delhi History हमें बार-बार दिखाती है कि दिल्ली की गद्दी किसी एक की स्थायी जागीर नहीं रही। जिसने सोचा कि उसने हमेशा के लिए सत्ता को पकड़ लिया है, वही सबसे जल्दी फिसल गया।

  • Nasir-ud-Din Khusrau Shah ने छल और साजिश से गद्दी हासिल की, लेकिन दो महीने से ज़्यादा टिक नहीं पाया।

  • उसके पास सेना थी, सोना-चाँदी था, और एक हद तक शक्ति भी, लेकिन उसके पास वैधता और सामाजिक स्वीकार्यता नहीं थी।

यही वजह रही कि उसकी सल्तनत रेत के महल की तरह ढह गई।

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